बे आस होकर – श्रीकृष्ण व नरसी मेहता कविता – २६

बे आस होकर – श्रीकृष्ण व नरसी मेहता कविता – २६


बे आस होकर जिस घड़ी, वह साधु बैठे सर झुका।
इतने में देखा दूर से, एक रथ है वां जाता चला॥
कलसी झमकती जगमगा, छतरी सुनहरी ख़ुशनुमा
एक शख़्स बैठा उसमें हे, सांवल बरन मोहन अदा॥
रथ की झलक से उसकी वां, रौशन अजब अनवार है॥२६॥


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बे आस होकर – श्रीकृष्ण व नरसी मेहता कविता – २६