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रोमांच स्वरवित – संत जोगा परमानंद अभंग – २
“रोमांच स्वरवित। स्वेदबिंदु डळमळितु॥
पाहता नेत्र उन्मलितु। मग मिटोत मागुते॥
ऐशी इवयी प्रकटसी। के माझ्या नरहरी॥
देखता तनु कापे। मनबुद्धि ही हारपे॥
सकळही अहंभाव लोपे। एकतत्त्वचि उरे।”
राम कृष्ण हरी आपणास या अभंगाचा अर्थ माहित असेल तर खालील कंमेंट बॉक्स मध्ये कळवा.
रोमांच स्वरवित – संत जोगा परमानंद अभंग – २